अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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सलाहकार की कलम से

गंगा प्रसाद विमल

जनवरी 2009, संस्करण 1, अंक 1

अरगला का यह प्रवेशांक आपकी आँखों के सामने आ चुका है. यह आँख से देखे जाने वाली पत्रिका भी है. सच यह है कि सौंदर्य का आस्वाद हम सबसे पहले आँख से करते हैं. अब नई तकनीकी ने हमें यह मौक़ा दिया है कि हम अपने यंत्रों पर इसे देखें.

पुराने संग्रह की विधि अभी निस्तेज नहीं हुई है. शायद होगी भी नहीं क्योंकि यह सब कुछ अक्षरों द्वारा ही संभव हुआ है. और अक्षर अगर हम उसकी संज्ञा पर ही जाएँ तो समाप्त न होने वाली इकाई है क्योंकि वह अक्षर है. संग्रह की दृष्टि से जब हम इसे आपके हाथों में सौंप रहे हैं तो यह कामना तो है कि आप इसे हाथों हाथ दूर तक ले जाएँ. संकेत यह है कि इसे संपादकों ने भरसक नव्यता के लक्षणों से संपन्न बनाने की कोशिश की है. इसीलिए इसमें ज़्यादतर नए चेहरे, नए कृतिकार, दिखेंगे क्योंकि अरगला का यह विश्वास है कि नए कृतिकार जहाँ नई भाषा का संस्कार ले कर आते हैं वहीं वे नई दृष्टि का भी आग्रह संरक्षित करते हैं. कुछेक रचनाएँ वरिष्ठ साहित्यकर्मियों की भी हैं. वे हमारी विरासत का हिस्सा हैं इसलिए उनके पुनर्प्रस्तुतिकरण की ज़रूरत महसूस हुई है. पर हम चाहेंगे कि ज़्यादा जगह नए रचनाकार, नए विचार, नए विग्रह, नए तेवर घेरें क्योंकि उस नयेपन से हम विरासत को ठीक दृष्टि से देखने में सक्षम हो सकते हैं.

आप लोग जो अपने यंत्रों पर इस पत्रिका को बाँच रहे हैं या जो पत्रिका को मुद्रित रूप में हासिल कर बांच रहे हैं बहुत ग़ौर से प्रत्येक रचना को देखेंगे और एक विमर्शात्मक तरीक़े से अपनी प्रतिक्रिया भेजेंगे. हमें आपकी आलोचनात्मक टिप्पणियों की ज़्यादा ज़रूरत है. इसलिए कि पूरी दुनिया में यह विश्वास फैला हुआ है कि असहमति या विरोध से ही हम सर्वस्वीकृत फ़ैसले तक पहुँच सकते हैं. इसके लिए बहुत धैर्य की ज़रूरत है.

अरगला अपने विविध स्तंभों में इस बात को ज़्यादा बढ़ायेगी कि हमें ज्ञान की रोशनी को अनन्त अँधेरे का मुक़ाबला करने के लिए जलाए रखना है. और यह तभी मुमकिन है जब हम इस बात पर यक़ीन पुख़्ता करें कि नकारात्मक सोच से विकास और बढ़ोत्तरी पर असर पड़ता है. जीव सृष्टि का नियम बढ़ना है रुकना नहीं. यह कुछ ऐसे सत्य हैं जिन्हें शब्दों में दुहराने से उनकी ताक़त कमतर होती जाती है इन्हें व्यवहार में ढालने की दृष्टि को ही सराहना होगा.

अरगला का यह पहला अंक एक तरह से लम्बी यात्रा का पहला क़दम है. और हर क़दम पर आपकी दृष्टि और आवाज़ की हमें इस ख़ातिर भी प्रतीक्षा रहेगी कि जो क़दम पड़ें वे ठीक पड़ें. तथापि ज्ञान के इलाक़े में भागमभाग की मनाही है. क्यों? इसी का उत्तर तो धैर्यपूर्वक अरगला की रचनात्मक तैयारियाँ देंगी. हम किस ओर बढ़ें इसका सबसे बढ़िया प्रकाश स्तंभ पाठकों के हाथों में रहता है और वहीं से हमें नए लेखन के बिन्दु विकसित होते हैं, वहीं से अदेखे कोने प्रकाशित होते हैं.

बसन्त की मंगलकामनाओं सहित.

- गंगा प्रसाद विमल, 2009

© 2009 Ganga Prasad Vimal; Licensee Argalaa Magazine.

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